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आप कौन हैं सलाह देने वाले

अभी उस दिन एक बहुत पुरानी मित्र बाजार में मिल गई। हम दोनों अंबाला में साथसाथ रहे थे। पता चला, पिछले दिनों उन का तबादला भी इसी शहर में हो गया है। उस दिन बाजार में भीड़भाड़ कुछ कम थी। मुझे देखते ही मीना सड़क के किनारे खींच ले गई और न जाने कितना सब याद करती रही। हम दोनों कुछ बच्चों की, कुछ घर की और कुछ अपनी कहतेसुनते रहे।

आप की बहुत याद आती थी मुझे, मीना बोली, आप से बहुत कुछ सीखा था मैं नेङ्घयाद है जब एक रात मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई थी तब आप ने कैसे संभाला था मुझे। मैं बीमार पड़ जाती तो क्या तुम न संभालतीं मुझे। जीवन तो इसी का नाम है। इतना तो होना ही चाहिए कि मरने के बाद कोई हमें याद करेङ्घआज तुम किसी का करो कल कोई तुम्हारा भी करेगा। मेरा हाथ कस कर पकड़े थी मीना। उम्र में मुझ से छोटी थी इसलिए मैं सदा उस का नाम लेती थी। वास्तव में कुछ बहुत ज्यादा खट्टा था मीना के जीवन में जिस में मैं उस के साथ थी। याद है दीदी, वह लड़की नीता, जिस ने बुटीक खोला था। अरे, जिस ने आप से सिलाई सीखी थी। बड़ी दुआएं देती है आप को। कहती है, आप ने उस की जिंदगी बना दी। याद आया मुझे। उस के पति का काम कुछ अच्छा नहीं था इसलिए मेरी एक क्लब मेंबर ने उसे मेरे पास भेजा था। लगभग 2 महीने उस ने मुझ से सिलाई सीखी थी। उस का काम चला या नहीं मुझे पता नहीं, क्योंकि उसी दौरान पति का तबादला हो गया था। वह औरत जब आखिरी बार मेरे पास आई थी तो हाथों में कुछ रुपए थे। बड़े संकोच से उस ने मेरी तरफ यह कहते हुए बढ़ाए थे: दीदी, मैं ने आप का बहुत समय लिया है। यह कुछ रुपए रख लीजिए। बस, तुम्हारा काम चल जाए तो मुझे मेरे समय का मोल मिल जाएगा, यह कहते हुए मैं ने उस का हाथ हटा दिया था। सहसा कितना सब याद आने लगा। मीना कितना सब सुनाती रही। समय भी तो काफी बीत चुका न अंबाला छोड़े। 6 साल कम थोड़े ही होते हैं। तुम अपना पता और फोन नंबर दो न, कह कर मीना झट से उस दुकान में चली गई जिस के आगे हम दोनों घंटे भर से खड़ी थीं। भैया, जरा कलमकागज देना। दुकानदार हंस कर बोला, लगता है, बहनजी कई साल बाद आपस में मिली हैं। घंटे भर से मैं आप की बातें सुन रहा हूं। आप दोनों यहां अंदर बेंच पर बैठ जाइए न।
क्षण भर को हम दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगीं। क्या हम इतना ऊंचाऊंचा बोल रही थीं। क्या बुढ़ापा आतेआते हमें असभ्य भी बना गया है? मन में उठे इन विचारों को दबाते हुए मैं बोली, क्या-क्या सुना आप ने, भैयाजी। हम तो पता नहीं क्या-क्या बकती रहीं। बकती नहीं रहीं बल्कि आप की बातों से समझ में आता है कि जीवन का अच्छाखासा निचोड़ निकाल रखा है आप ने। क्या निचोड़ नजर आया आप को, भाई साहब, सहसा मैं भी मीना के पीछेपीछे दुकान के अंदर चली गई तो वह अपने स्टूल पर से उठ कर खड़ा हो गया। आइए, बहनजी। अरे, छोटूङ्घजा, जा कर 2 चाय ला। पल भर में लगा हम बहुत पुराने दोस्त हैं। अब इस उम्र तक पहुंचतेपहुंचते नजर पढ़ना तो आ ही गया है मुझे। सहसा मेरी नजर उस स्टूल पर पड़ी जिस पर वह दुकानदार बैठा था। एक सवा फुट के आकार वाले स्टूल पर वह भारीभरकम शरीर का आदमी कैसे बैठ पाता होगा यही सोचने लगी। इतनी बड़ी दुकान है, क्या आरामदायक कोई कुरसी नहीं रख सकता यह दुकानदार? तभी एक लंबेचौड़े लड़के ने दुकान में प्रवेश किया। मीना कागज पर अपने घर का पता और फोन नंबर लिखती रही और मैं उस ऊंचे और कमचौड़े स्टूल को ही देखती रही जिस पर अब उस का बेटा बैठने जा रहा था। नहीं भैयाजी, चाय मत मंगाना, मीना मना करते हुए बोली, वैसे भी हम बहुत देर से आप के कान पका रहे हैं। बेटा, तुम इस इतने ऊंचे स्टूल पर क्या आराम से बैठ पाते हो? कम से कम 12 घंटे तो तुम्हारी दुकान खुलती ही होगी? मेरे होंठों से सहसा यह निकल गया और इस के उत्तर में वह दुकानदार और उस का बेटा एकदूसरे का चेहरा पढ़ने लगे। तुम्हारी तो कदकाठी भी अच्छी- खासी है। एक 6 फुट का आदमी अगर इस ऊंचे और छोटे से स्टूल पर बैठ कर काम करेगा तो रीढ़ की हड्डी का सत्यानाश हो जाएगाङ्घशरीर से बड़ी कोई दौलत नहीं होती। इसे सहेजसंभाल कर इस्तेमाल करोगे तो वर्षों तुम्हारा साथ देगा। बेटे ने तो नजरें झुका लीं पर बाप बड़े गौर से मेरा चेहरा देखने लगा। मेरे पिताजी भी इसी स्टूल पर पूरे 50 साल बैठे थे उन की पीठ तो नहीं दुखी थी। उन की नहीं दुखी होगी क्योंकि वह समय और था, खानापीना शुद्ध हुआ करता था। आज हम हवा तक ताजा नहीं ले पाते। खाने की तो बात ही छोड़िए। हमारे जीने का तरीका वह कहां है जो आप के पिताजी का था। मुझे डर है आप का बेटा ज्यादा दिन इस ऊंचे स्टूल पर बैठ कर काम नहीं कर पाएगा। इसलिए आप इस स्टूल की जगह पर कोई आरामदायक कुरसी रखिए। मैं और मीना उस दुकान पर से उतर आए और जल्दी ही पूरा प्रसंग भूल भी गए। पता नहीं क्यों जब भी कहीं कुछ असंगत नजर आता है मैं स्वयं को रोक नहीं पाती और अकसर मेरे पति मेरी इस आदत पर नाराज हो जाते हैं। तुम दादीअम्मां हो क्या सब की। जहां कुछ गलत नजर आता है समझाने लगती हो। सामने वाला चाहे बुरा ही मान जाए। मान जाए बुरा, मेरा क्या जाता है। अगर समझदार होगा तो अपना भला ही करेगा और अगर नहीं तो उस का नुकसान वही भोगेगा। मैं तो आंखें रहते अंधी नहीं न बन सकती। अकसर ऐसा होता है न कि हमारी नजर वह नहीं देख पाती जो सामने वाली आंख देख लेती है और कभीकभी हम वह भांप लेते हैं जिसे सामने वाला नहीं समझ पाता। क्या अपना अहं आहत होने से बचा लूं और सामने वाला मुसीबत में चला जाए? प्रकृति ने बुद्धि दी है तो उसे झूठे अहं की बलि चढ़ जाने दूं? क्या प्रकृति ने सिर्फ तुम्हें ही बुद्धि दी है? मैं आप से भी बहस नहीं करना चाहती। मैं किसी का नुकसान होता देख चुप नहीं रह सकती, बस। प्रकृति ने बुद्धि तो आप को भी दी है जिस से आप बहस करना तो पसंद करते हैं लेकिन मेरी बात समझना नहीं चाहते।

मैं अकसर खीज उठती हूं। कभीकभी लगने भीलगता है कि शायद मैं गलत हूं। कभी किसी को कुछ समझाऊंगी नहीं मगर जब समय आता है मैं खुद को रोक नहीं पाती हूं। अभी उस दिन प्रेस वाली कपड़े लेने आई तो एक बड़ी सी गठरी सिर पर रखे थी। अपने कपड़ों की गठरी उसे थमाते हुए सहसा उस के पेट पर नजर पड़ी। लगा, कुछ है। खुद को रोक ही नहीं पाई मैं। बोली, क्यों भई, कौन सा महीना चल रहा है? नहीं तो, बीबीजी अरे, बीबीजी से क्यों छिपा रही है? पेट में बच्चा और शरीर पर इतना बोझ लिए घूम रही है। अपनी सुध ले, अपने आदमी से कहना, तुझ से इतना काम न कराए। टुकुरटुकुर देखती रही वह मुझे। फिर फीकी सी हंसी हंस पड़ी। पूरी कालोनी घूमती हूं, किसी ने इतना नहीं समझाया और न ही किसी को मेरा पेट नजर आया तो आप को कैसे नजर आ गया?
पता नहीं लोग देख कर भी क्यों अंधे बन जाते हैं या हमारी संवेदनाएं ही मर गई हैं कि हमें किसी की पीड़ा, किसी का दर्द दिखाई नहीं देता। ऐसी हालत में तो लोग गायभैंस पर भी तरस खा लेते हैं यह तो फिर भी जीतीजागती औरत है। कुछ दिन बाद ही पता चला, उस के घर बेटी ने जन्म लिया। धन्य हो देवी। 9 महीने का गर्भ कितनी सहजता से छिपा रही थी वह प्रेस वाली। मैं ने हैरानी व्यक्त की तो पति हंसते हुए बोले, अब क्या जच्चाबच्चा को देखने जाने का भी इरादा है? वह तो है ही। सुना है पीछे किसी खाली पड़ी कोठी में रहती है।
बाथरूम जाना या चाय मांगना मेरी समस्या नहीं है, समस्या यह है कि उन के जाने के बाद हमारा बाथरूम चींटियों से भर जाता है। सफेद बरतन एकदम काला हो जाता है। हो न हो इन्हें शुगर हो।
पति से अपने मन की बात बता कर पूछ लिया कि क्या उन से इस बारे में बात करूं? खबरदार, हर बात की एक सीमा होती है। किसी के फटे में टांग मत डाला करो।
आज शाम जाऊंगी और कुछ गरम कपड़े पड़े हैं, उन्हें दे आऊंगी। सर्दी बढ़ रही है न, उस के कामआ जाएंगे। नमस्कार हो देवी, दोनों हाथ जोड़ मेरे पति ने अपने कार्यालय की राह पकड़ी। मुझे समझ में नहीं आया, मैं कहां गलत थी। मैं क्या करूं कि मेरे पति भी मुझे समझने का प्रयास करें। कुछ दिन बाद एक और समस्या मेरे सामने चली आई। इन के एक सहयोगी हैं जो अकसर परिवार सहित हमारे घर आते हैं। 1-2 मुलाकातों में तो मुझे पता नहीं चला लेकिन अब पता चल रहा है कि जब भी वह हमारे घर आते हैं, 1 घंटे में लगभग 4-5 बार बाथरूम जाते हैं। बारबार चाय भी मांगते हैं। बाथरूम जाना या चाय मांगना मेरी समस्या नहीं है, समस्या यह है कि उन के जाने के बाद हमारा बाथरूम चींटियों से भर जाता है। सफेद बरतन एकदम काला हो जाता है। हो न हो इन्हें शुगर हो। पति से अपने मन की बात बता कर पूछ लिया कि क्या उन से इस बारे में बात करूं? खबरदार, हर बात की एक सीमा होती है। किसी के फटे में टांग मत डाला करो। मैं ने कह दिया न। एक बार तो पूछ लो, मन नहीं माना तो पति से जोर दे कर बोली, शुगर के मरीज को अकसर पता नहीं चलता कि उसे शुगर है और बहुत ज्यादा शुगर बढ़ जाए तभी पेशाब में आती है। क्या पता उन्हें पता ही न हो कि उन्हें शुगर हो चुकी है। कोई जरूरत नहीं है और तुम ज्यादा डाक्टरी मत झाड़ो। दुनिया में एक तुम ही समझदार नहीं हो। उन्हें कुछ हो गया तोङ्घ देखो उन के छोटेछोटे बच्चे हैं और कुछ हो गया तो क्या होगा? क्या उम्र भर हम खुद को क्षमा कर पाएंगे? अपने पति से जिद कर मैं एक दिन जबरदस्ती उन के घर चली गई। बातोंबातों में मैं ने उन के बाथरूम में जाने की इच्छा व्यक्त की। क्या बताऊं, दीदी, हमारा बाथरूम साफ होता ही नहीं। इतनी चींटी हैं कि क्या कहूं इतना फिनाइल डालती हूं कि पूछो मत। आप के घर में किसी को शुगर तो नहीं है न? नहीं तो, आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं? अवाक् रह गई थी वह। धीरे से अपनी बात कह दी मैं ने। रो पड़ी वह। मैं ने कहा तो मानो उसे भी लगने लगा कि शायद घर में किसी को शुगर है। हां, तभी रातरात भर सो नहीं पाते हैं। हर समय टांगें दबाने को कहते हैं। बारबार पानी पीते हैंङ्घ और कमजोर भी हो रहे हैं। दीदी, कभी खयाल ही नहीं आया मुझे। हमारे तो खानदान में कहीं किसी को शुगर नहीं है। उसी पल मेरे पति उन को साथ ले कर डाक्टर के पास गए। रक्त और पेशाब की जांच की। डाक्टर मुंहबाए उसे देखने लगा। इतनी ज्यादा शुगरङ्घआप जिंदा हैं मैं तो इसी पर हैरान हूं। वही हो गया न जिस का मुझे डर था। उसी क्षण से उन का इलाज शुरू हो गया। मेरे पति उस दिन के बाद से मुझ से नजरें चुराने से लगे। आप न बतातीं तो शायद मैं सोयासोया ही सो जाताङ्घआप ने मुझे बचा लिया, दीदी, लगभग मेरे पैर ही छूने लगे वह। बस बस अब दीदी कहा है तो तुम्हारा नाम ही लूंगी देखो, अपना पूरापूरा खयाल रखना। सदा सुखी रहो, मैं उसे आशीर्वाद के रूप में बोली और अपने पति का चेहरा देखा तो हंसने लगे।

जय हो देवी, अब प्रसन्न हो न भई, तुम्हारा इलाज हμता भर पहले भी शुरू हो सकता था अगर मैं देवीजी की बात मान लेता। आज भी यह जिद कर के लाई थीं। मेरा ही दोष रहा जो इन का कहा नहीं माना। उस रात मैं चैन की नींद सोई थी। एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि उन पर मैं कोई कृपा, कोई एहसान कर के लौटी हूं। बस, इतना ही लग रहा था कि अपने भीतर बैठे अपने चेतन को चिंतामुक्त कर आई हूं। कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारी निभा आई हूं। अगले दिन सुबहसुबह दरवाजे पर एक व्यक्ति को खड़ा देखा तो समझ नहीं पाई कि इन्हें कहां देखा है। शायद पति के जानकार होंगे। उन्हें भीतर बिठाया। पता चला, पति से नहीं मुझ से मिलने आए हैं। कौन हैं यह? मैं तो इन्हें नहीं जानती, पति से पूछा। कह रहे हैं कि वह तुम्हें अच्छी तरह पहचानते हैं और तुम्हारा धन्यवाद करने आए हैं। मेरा धन्यवाद कैसा? मैं कुछ याद करते हुए पति से बोली, हां, कहीं देखा तो लग रहा है लेकिन याद नहीं आ रहा, रसोई का काम छोड़ मैं हाथ पोंछती हुई ड्राइंगरूम में चली आई। प्रश्नसूचक भाव से उन्हें देखा। बहनजी, आप ने पहचाना नहीं। चौक पर मेरी दुकान है। कुछ समय पहले आप और आप की एक सखी मेरी दुकान के बाहर अरे हां, याद आया। मैं और मीना मिले थे न, पति को बताया मैं ने। कहिए, मेरा कैसा धन्यवाद? उस दिन आप ने मेरे बेटे से कहा था न कि वह ऊंचे स्टूल पर न बैठे। दरअसल, उसी सुबह वह पीठ दर्द की वजह से 7 दिन अस्पताल रह कर ही लौटा था। डाक्टरों ने भी मुझे समझाया था कि उस स्टूल की वजह से ही सारी समस्या है। हां तो समस्या क्या है? आप कुरसी नहीं खरीद सकते क्या? कुरसी तो लड़का 6 महीने पहले ही ले आया था, जो गोदाम में पड़ी सड़ रही है। मैं ही जिद पर अड़ा था कि वह स्टूल वहां से न हटाया जाए। वह मेरे पिताजी का स्टूल है और मुझे वहम ही नहीं विश्वास भी है कि जब तक वह स्टूल वहां है तब तक ही मेरी दुकान सुरक्षित है। जिस दिन स्टूल हट गया लक्ष्मी भी हम से रूठ जाएगी। हम दोनों अवाक् से उस आदमी का मुंह देखते रहे। मेरा बच्चा रोतापीटता रहा, मेरी बहू मेरे आगे हाथपैर जोड़ती रही लेकिन मैं नहीं माना। साफसाफ कह दिया कि चाहो तो घर छोड़ कर चले आओ, दुकान छोड़ दो पर वह स्टूल तो वहीं रहेगा। मैं तो सोचता रहा कि लड़का बहाना कर रहा होगा। अकसर बच्चे पुरानी चीज पसंद नहीं न करते। सोचा डाक्टर भी जानपहचान के हैं, उन से कहलवाना चाहता होगा लेकिन आप तो जानपहचान की न थीं। और उस दिन जब आप ने कहा तो लगा मेरा बच्चा सच ही रोता होगा। एक दिन मेरा बच्चा ही किसी काम का न रहा तो मैं लक्ष्मी का भी क्या करूंगा? पिताजी की निशानी को छाती से लगाए बैठा हूं और उसी का सर्वनाश कर रहा हूं जिस का मैं भी पिता हूं। मेरा बच्चा अपने बुढ़ापे में मेरी जिद याद कर के मुझे याद करना भी पसंद नहीं करेगा। क्या मैं अपने बेटे को पीठदर्द विरासत में दे कर मरूंगा। उसी शाम मैं ने वह स्टूल उठवा कर कुरसी वहां पर रखवा दी। मेरे बेटे का पीठदर्द लगभग ठीक है और घर में भी शांति है वरना बहू भी हर पल चिढ़ीचिढ़ी सी रहती थी। आप की वजह से मेरा घर बच गया वरना उस स्टूल की जिद से तो मैं अपना घर ही तोड़ बैठता। मिठाई का एक डब्बा सामने मेज पर रखा था। उस पर एक कार्ड था। धन्यवाद का संदेश उन महाशय के बेटे ने मुझे भेजा था। क्या कहती मैं? भला मैं ने क्या किया था जो उन का धन्यवाद लेती? आप की वह सहेली एक दिन बाजार से गुजरी तो मैं ने रोक कर आप का पता ले लिया। फोन कर के भी आप का धन्यवाद कर सकता था। फिर सोचा मैं स्वयं ही जाऊंगा। अपने बेटे के सामने तो मैं ने अपनी गलती नहीं मानी लेकिन आप के सामने स्वीकार करना चाहता हूं, अन्याय किया है मैं ने अपनी संतान के साथङ्घ पता नहीं हम बड़े सदा बच्चों को ही दोष क्यों देते रहते हैं? कहीं हम भी गलत हैं, मानते ही नहीं। हमारे चरित्र में पता नहीं क्यों इतनी सख्ती आ जाती है कि टूट जाना तो पसंद करते हैं पर झुकना नहीं चाहते। मैं स्वीकार करना चाहता हूं, विशेषकर जब बुढ़ापा आ जाए, मनुष्य को अपने व्यवहार में लचीलापन लाना चाहिए। क्यों, है न बहनजी? जी, आप ठीक कह रहे हैं। मैं भी 2 बेटों की मां हूं। शायद बुढ़ापा गहरातेगहराते आप जैसी हो जाऊं। इसलिए आज से ही प्रयास करना शुरू कर दूंगी, और हंस पड़ी थी मैं। पुन: धन्यवाद कर के वह महाशय चले गए। पति मेरा चेहरा देखते हुए कहने लगे, ठीक कहती हो तुम, जहां कुछ कहने की जरूरत हो वहां अवश्य कह देना चाहिए। सामने वाला मान ले उस की इच्छा न माने तो भी उस की इच्छाङ्घ कम से कम हम तो एक नैतिक जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त कर सकते हैं न जो हमारी अपनी चेतना के प्रति होती है। लेकिन सोचने का प्रश्न एक यह भी है कि आज कौन है जो किसी की सुनना पसंद करता है। और आज कौन इतना संवेदनशील है जो दूसरे की तकलीफ पर रात भर जागता है और अपने पति से झगड़ा भी करता है। पति का इशारा मेरी ओर है, मैं समझ रही थी। सच ही तो कह रहे हैं वह, आज कौन है जो किसी की सुनना या किसी को कुछ समझाना पसंद करता है?

सुधा गुप्ता